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बेरोजगारी और बढ़ती जनसंख्या: राजनीतिक जुमले और हकीकत
भारत में बेरोजगारी और बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, लेकिन इन मुद्दों को हल करने के बजाय कई राजनीतिक दल इन्हें अपने चुनावी जुमलों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। चुनावों के दौरान बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई ठोस बदलाव नहीं होता।
राजनीतिक दलों के जुमले और बेरोजगारी
रोजगार के झूठे जुमले –
चुनावों में लाखों नौकरियों का वादा किया जाता है, लेकिन सत्ता में आते ही यह सब सिर्फ एक जुमला बनकर रह जाता है। सरकारें बेरोजगारी के असली आंकड़े छिपाने के लिए डेटा में हेरफेर तक कर देती हैं।
आरक्षण का जुमला –
चुनावी फायदे के लिए जातिगत आरक्षण का मुद्दा उठाया जाता है, लेकिन यह बेरोजगारी का असली समाधान नहीं है। रोजगार पैदा करने की बजाय, आरक्षण को एक जुमला बनाकर वोट बैंक की राजनीति की जाती है।
मुफ्त योजनाओं का जुमला –
जब सरकारें नौकरियाँ देने में नाकाम हो जाती हैं, तो वे मुफ्त राशन, भत्ते और अनुदान जैसी योजनाओं का लालच देकर जनता को बहलाने की कोशिश करती हैं। यह तात्कालिक राहत देता है लेकिन स्थायी समाधान नहीं।
मैन्युफैक्चरिंग और उद्योगों को कमजोर करने का जुमला –
"मेक इन इंडिया", "स्टार्टअप इंडिया" जैसे नारों का जोरशोर से प्रचार किया जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि छोटे व्यापारी और स्टार्टअप्स को कोई ठोस सहारा नहीं मिलता। बड़े कॉर्पोरेट्स को फायदा पहुँचाने के लिए छोटे उद्योगों की अनदेखी की जाती है।
शिक्षा सुधार का जुमला –
शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने की बजाय सरकारें केवल कॉलेजों और डिग्रियों की संख्या बढ़ाकर अपनी पीठ थपथपाती हैं। रोजगारपरक शिक्षा न देने के कारण युवा डिग्री लेकर भी बेरोजगार रहते हैं।
डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे जुमले –
इन अभियानों का वास्तविक लाभ कुछ ही लोगों तक सीमित रहता है, जबकि करोड़ों युवा रोजगार पाने के लिए संघर्ष करते हैं। इन योजनाओं के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका असर नहीं दिखता।
विकास के नाम पर भेदभाव का जुमला –
सरकारें अपने समर्थक उद्योगपतियों को टैक्स छूट और अन्य सुविधाएँ देकर फायदा पहुँचाती हैं, जबकि छोटे व्यापारियों को कड़े नियमों में फँसाकर दबा दिया जाता है। इससे असंगठित क्षेत्र में रोजगार खत्म हो जाते हैं।
बढ़ती जनसंख्या: राजनीति का एक और जुमला
कुछ दल इसे धार्मिक और सांप्रदायिक रंग देकर मुस्लिम और हिंदू जनसंख्या दर पर बहस छेड़ते हैं, जबकि असली मुद्दा परिवार नियोजन और संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।
सरकारें बढ़ती जनसंख्या को अपने लिए सस्ता श्रम और वोट बैंक के रूप में देखती हैं, लेकिन इसके दीर्घकालिक दुष्परिणामों की अनदेखी करती हैं।
यदि जनसंख्या नियंत्रण पर कोई ठोस नीति बनाई जाए, तो राजनीतिक दल इसे "मानवाधिकार के उल्लंघन" का जुमला बनाकर जनता को गुमराह कर देते हैं।
1. बेरोजगारी के आंकड़े और जुमले
भारत में बेरोजगारी दर को लेकर हर सरकार अलग-अलग आंकड़े प्रस्तुत करती है, लेकिन वास्तविकता काफी भयानक है।
CMIE (Centre for Monitoring Indian Economy) के अनुसार:
- 2023 में बेरोजगारी दर: 8.2%
- शहरी बेरोजगारी दर: 9.1%
- ग्रामीण बेरोजगारी दर: 7.9%
सरकारी जुमला:
हर साल 2 करोड़ नौकरियों का वादा किया गया था, लेकिन पिछले 10 वर्षों में केवल 50 लाख नौकरियाँ ही दी गईं।
बेरोजगारी का गणित
अगर भारत की जनसंख्या 140 करोड़ है और काम करने योग्य जनसंख्या (15-64 वर्ष) 67% है, तो इसका मतलब है:
=93.8 करोड़ (काम करने योग्य लोग)
अगर 8.2% बेरोजगारी दर है, तो बेरोजगार लोगों की संख्या:
7.69 करोड़ लोग भारत में बेरोजगार हैं, जो कि UK और Canada की कुल जनसंख्या से अधिक है।
2. सरकारी रोजगार योजनाओं के जुमले और असली डेटा मनरेगा (MGNREGA) के आंकड़े:
सरकार ने दावा किया कि मनरेगा ने 10 करोड़ से अधिक नौकरियाँ दीं।
लेकिन हकीकत: इन नौकरियों की औसत अवधि सिर्फ 50 दिन प्रति वर्ष थी, जो पर्याप्त नहीं है।
अगर न्यूनतम मजदूरी ₹250/दिन मानें, जो कि जीवन यापन के लिए अत्यंत कम है।
समस्या का समाधान: जनता को जुमलों से बचने की जरूरत
जनता को झूठे चुनावी जुमलों के बजाय सरकारों से ठोस नीतियों और जवाबदेही की माँग करनी चाहिए।
रोजगार और शिक्षा से जुड़े वास्तविक आंकड़ों की माँग की जानी चाहिए ताकि सरकारें अपने प्रदर्शन को लेकर जिम्मेदार रहें।
शिक्षा प्रणाली को उद्योगों से जोड़ा जाए और युवाओं को केवल डिग्री नहीं, बल्कि वास्तविक कौशल प्रदान किया जाए।
वोट बैंक की राजनीति को नकारते हुए जनता को रोजगार और विकास आधारित मुद्दों पर मतदान करना चाहिए।
मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रचारित झूठे जुमलों से बचना चाहिए और वास्तविक तथ्यों को समझकर अपनी राय बनानी चाहिए।
निष्कर्ष
बेरोजगारी और बढ़ती जनसंख्या भारत की सबसे गंभीर समस्याओं में से हैं, लेकिन इनका समाधान करने के बजाय राजनीतिक दल इन्हें केवल जुमलेबाजी तक सीमित रखते हैं। जनता को समझना होगा कि इन मुद्दों को केवल नारों, घोषणाओं या मुफ्त योजनाओं से हल नहीं किया जा सकता। असली बदलाव तब आएगा जब राजनीतिक दलों को उनके वादों के लिए जवाबदेह बनाया जाएगा और वोट केवल उन्हीं को दिया जाएगा जो रोजगार सृजन और विकास के लिए ठोस कदम उठाएँगे।
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